अगर पेट के कीड़ो से हैं परेशान, तो आजमाइए ये आयुर्वेदिक नुस्का

   


    ज्यादातर बच्चों में शैशवकाल से लेकर किशोरावस्था तक कृमियों की शिकायत देखने में आती है। आमतौर पर इस अवस्था में बच्चे के माता-पिता यह नहीं तय कर पाते कि बच्चे को क्या बीमारी है और इसलिए वे इसका निदान भी नहीं कर पाते। चूंकि पेट में कृमि के लक्षण खासे भ्रमकारी होते हैं इसलिए इनकी पहचान और फिर निदान मुश्किल हो जाता है। पेट में कीड़ो के कारण बच्चे के पेट में दर्द होता है। कभी बच्चे की भूख मर जाती है कभी उसका पेट साफ नहीं होता। कभी-कभी सर्दी-बुखार और टांसिल्स की शिकायत भी हो जाती है। ऐसे में डॉक्टर भी भ्रमित हो जाता है और वह इन लक्षणों के आधार पर बच्चे को दवा दे देता है जिससे रोग का पूरी तरह शमन नहीं हो पाता। आयुर्वेद के अंतर्गत पेट में कीड़े होने पर उत्पन्न होने वाले लक्षणों का स्पष्ट वर्णन किया गया है। बुखार होना, शरीर की त्वचा का रंग फीका प॰डना या पीला पड़ जाना, पेट दर्द होना, हृदय में दर्द या चटक उठना, चक्कर आना, जी मिचलाना, भोजन के प्रति अरूचि होना तथा साथ ही बच्चे को दस्त की शिकायत भी हो जाती हैं। इस प्रकार के लक्षण यदि हों तो बच्चे के पेट में कृमि होना निश्चित है।
        इसके कई कारण होते हैं जैसे मीठे पदार्थों र्का अधिक सेवन, विपरीत तासीर वाले खाद्य पदार्थों र्को एक साथ खाना, अम्ल रस, गुड़, बासी अन्न, दूषित तथा सड़े हुए मांस-मछली आदि का सेवन करना। अधिक चाकलेट, टॉफी खाना, कच्चे हरे चने खाना तथा दूषित जल पीना भी पेट में कृमि उत्पन्न होने के कारण हो सकते हैं। कृमियों के रहने के स्थान के आधार पर उन्हें दो भागों में बांटा गया है, आंतरिक तथा बाहरी। अमाशय तथा आंतों में जो कृमि रहते हैं उन्हें आंतरिक कृमि कहते हैं। वे कृमि जो त्वचा, बालों और कपड़ो  कृमि कहते हैं। आयुर्वेद में लगभग २० प्रकार के कृमि आंतरिक बताए गए हैं जिन्हें तीन श्रेणियों- पुरीषज, कफज तथा रक्तज में बांटा गया है। प्रमुख रूप से कृमि चार प्रकार के होते हैं जैसे सूत्र कृमि, गंडूपाद कृमि, स्फीत कृमि और अंकुश मुख कृमि।
        सूत्र कृमि पतले सूत्र के समान होते हैं। अंग्रेजी में इसे थ्रेड (डोरा) वर्म कहते हैं। ये बहुत छोटे तथा बारीक होते हैं जो झुंड बनाकर गुदा में मलद्वार के पास एकत्रित हो जाते हैं। ये गुदा के अंदर और मलद्वार पर काटते हैं जिससे बच्चा रोता है। विशेष रूप से यह तकलीफ रात को होती है जिस कारण बच्चा सो नहीं पाता। यदि बच्चा सोते समय दांत पीसे या किटकिटाए या शक्कर या  गुड जैसे मीठे पदार्थ बहुत अधिक खाए, नाक और गुदा खुजाए, पेट के बल सोए, उसका हाजमा खराब हो, उसके मुंह व सांस से दुर्गंध आए तो समझना चाहिए कि पेट में थ्रेड वर्म है।
           गंडूपाद कृमि केंचुए जैसा गोल और लंबा होता है। इसकी लम्बाई ४ से १२ इंच तक हो सकती है। कभी-कभी यह कृमि मुंह से बाहर भी निकल आता है। अंकुश मुख कृमि को हुक वर्म भी कहते हैं। ये आंतों से चिपककर खून चूसते रहते हैं जिससे रोगी कमजोर होने लगता है और उसमें खून की कमी हो जाती है। ये कृमि फटी हुई त्वचा के रास्ते से शरीर में घुस कर छोटी आंत तक पहुंच जाते हैं। चूंकि बच्चों को कृमि रोग बड़ो के मुकाबले आसानी से होता है इसलिए बच्चों को इससे बचाना बहुत जरूरी है। कृमि रोग से पीड़ित होने पर बच्चे का शौच का समय कभी निश्चित नहीं हो पाता, बच्चा पेट के बल सोता है और नींद में दांत पीसता या किटकिटाता है। कभी वह ठीक से भोजन करता है तो कभी उसका खाने का मन नहीं करता। सोते समय उसके मुख से लार टपकती है मलद्वार तथा नाक में खुजली होती है।