नेताजी सुभाषचन्द्र बोस का भारत की आजादी में योगदान तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा

२३ जनवरी १८९७ को उड़ीसा के कटक में एक सम्पन्न बंगाली परिवार में पिता जानकीनाथ और माता प्रभावती के यहां एक तेजस्वी संतान ने जन्म लिया था, जो आगे चलकर नेताजी सुभाषचंद्र बोस कहलाये, अपने वतन भारत को अंग्रेजी दासता से मुक्त कराने के लिये, महान पराक्रमी, सच्चे देशभक्त और स्वतंत्रता संग्राम सेनानी के रूप में नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने देश को आह्वान किया कि, ‘‘तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा।’’


                २० जुलाई १९२१ को उनकी मुलाकात राष्ट्रपिता महात्मा गांधी से हुई थी, सुभाषचंद्र बोस महात्मा गांधी के अहिंसा के विचारों से सहमत नहीं थे, गांधीजी उदार दल का नेतृत्त्व करते थे, वहीं सुभाषचंद्र बोस जोशीले क्रांतिकारी दल के प्रिय थे। १९३८ में वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष निर्वाचन होने के बाद उन्होंने राष्ट्रीय योजना आयोग का गठन किया था। उनकी यह नीति गांधीवादी आर्थिक विचारों के अनुकूल नहीं थी। १९३९ में बोस पुन: एक गांधीवादी प्रतिद्वंदी को हराकर विजयी हुए। उनके अध्यक्ष चुने जाने पर गांधीजी ने कहा कि बोस की जीत मेरी हार है। अध्यक्ष बनने के बाद बोस को असहज महसूस होने लगा, गांधीजी के विरोध के चलते इस ‘‘विद्रोही अध्यक्ष’’ ने स्वयं कांग्रेस छोड़ दी।


                दरअसल सुभाषचंद्र बोस को उनके पिता ने उन्हें कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय इंग्लैण्ड में भारतीय प्रशासनिक सेवा (इंडियन सिविल सर्विस) की तैयारी के लिये भेजा था, इस परीक्षा में उन्होंने चौथा स्थान प्राप्त किया। किन्तु १९२१ में भारत में बढ़ती राजनीतिक गतिविधियों के समाचार और भारतीयों पर अंग्रेजों के बढ़ते अत्याचार ने उन्हें विचलित कर दिया था, वे सिविल सर्विस छोड़कर कांग्रेस से जुड़ गये थे, और १९३८-३९ में वे अध्यक्ष चुने गये। उनका झुकाव सांसारिक धन, वैभव या पदवी की ओर नहीं गया था। मित्रगण उन्हें सन्यासी पुकारते थे, बोस, स्वामी विवेकानंद को अपना आदर्श मानते थे।


                बंगाल के श्रेष्ठ नेता चितरंजन दास गांधीजी के आह्वान पर अपनी लाखों की बैरस्टरी त्याग चुके थे। सुभाष बाबू के त्याग को सुनकर उन्हें बहुत खुशी हुई, सुभाष बाबू देशबन्धु को अपना राजनीतिक गुरु मानते थे और उनके प्रति अत्यन्त आदर और श्रद्धा का भाव रखते थे। सुभाषचंद्र बोस के ओजस्वी भाषणों से हजारों विद्यार्थी, वकील, सरकारी नौकर गांधीजी के आंदोलन में शामिल हो गये, सुभाष बाब के तेज प्रवाह से डर कर अंग्रेज सरकार ने चिंतरंजन दास और सुभाष बाबू को छ: महीने कैद की सजा सुनायी। सुभाषचंद्र बोस समाज सेवा तथा किसानों को उनका हक दिलाने की लड़ाई भी लड़ रहे थे। उन्होंने ‘युवक दल’ की स्थापना की।


                उनके उग्र और जोशीले प्रभाव से अंग्रेज सरकार भयभीत हो गयी। अंग्रेजों ने उन पर आरोप लगाया कि वे बम और पिस्तौल बनाने वाले क्रांतिकारियों के साथ है, उन्हें कुछ दिन कोलकत्ता की जेल में रखने के बाद मांडले (बर्मा) की जेल में भेज दिया गया। अपने सार्वजनिक जीवन में सुभाषचंद्र बोस को कुछ ग्यारह बार कारावास हुआ था। मांडले जेल में अधिक बीमार हो जाने के कारण सरकार ने उनको छोड़ने का आदेश दे दिया। बर्मा की जेल से आने के बाद कोलकत्ता में उन्होंने भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में जोर-शोर से हिस्सा लेना प्रारंभ कर दिया। १९३८ में कांग्रेस ने उन्हें अध्यक्ष तो चुना था, मगर गांधीजी को सुभाष बाबू की कार्यपद्धति पसंद नहीं आयी। इसी दौरान यूरोप में द्वितीय विश्वयुद्ध के बादल छा गये, सुभाष बाबू चाहते थे कि, इंग्लैण्ड की इस कठिनाई का लाभ उठाकर भारत का स्वतंत्रता संग्राम अधिक तेज कर दिया जाए, उन्होंने अध्यक्ष के रूप में इस तरफ कदम उठाना भी शुरू कर दिये थे, लेकिन गांधीजी इससे सहमत नहीं थे। इन्हीं मतभेदों के कारण उन्होंने कांग्रेस छोड़ दी।


                १९४१ में जब उन पर मुकदमा चल रहा था और उन्हें अदालत में पेश होना था तब वे वेश बदलकर भारत छोड़कर सबसे पहले काबुल गये फिर वहां से जर्मनी पहुंचे जहां उन्होंने हिटलर से भेंट की। उन्होंने जर्मनी में ‘भारतीय स्वतंत्रता संगठन’ और ‘आजाद हिंद रेडियो’ की स्थापना की थी। जर्मनी से सुभाषचंद्र बोस गोताखोर नाव द्वारा जापान पहुंचे, अंग्रेजों के खिलाफ लड़ने के लिये जापान के सहयोग से ‘आजाद हिन्द फौज’ का गठन किया और युवाओं को आह्वान करते हुए कहा ‘तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा’।


                बोस का मानना था कि अंग्रेजों के दुश्मनों से मिलकर आजादी हासिल की जा सकती है, यूरोप में यह दौर था हिटलर के नाजीवाद और मुसोलिनी के फासीवाद का। नाजीवाद और फासीवाद का निशाना इंग्लैण्ड था, जिसने पहले विश्वयुद्ध के बाद जर्मनी पर एकतरफा समझौते थोपे थे। वे उसका बदला इंग्लैण्ड से लेना चाहते थे। भारत पर भी अंग्रेजों का कब्जा था और इंग्लैण्ड के खिलाफ नेताजी को हिटलर और मुसोलिनी में भविष्य का मित्र दिखाई पड़ रहा था। दुश्मन का दुश्मन दोस्त होता है, बोस स्वतंत्रता हासिल करने के लिये राजनीतिक गतिविधियों के साथ-साथ वूâटनीति और सैन्य सहयोग भी जरूरी समझते थे। सशस्त्र क्रान्ति द्वारा भारत को स्वतंत्र कराने के उद्देश्य से २१ अक्टूबर १९४३ को ‘आजाद हिन्द सरकार’ की स्थापना की तथा ‘आजाद हिन्द फौज’ का गठन किया। नेताजी अपनी आजाद हिन्द फौज के साथ ४ जुलाई १९४४ को बर्मा पहुंचे। १८ अगस्त १९४५ को टोक्यो (जापान) जाते समय ताइवान के पास नेताजी का एक हवाई दुर्घटना में निधन हो गया, लेकिन उनका शव नहीं मिला। नेताजी की मौत के कारणों पर आज भी विवाद बना हुआ है और इस तरह एक महान, सच्चे देशभक्त का तारा अस्त हो गया। 


                                                                                                               लेखक राज्यस्तरीय अधिमान्य पत्रकार है।